जब सफ़र से लौट कर....

June 13, 2017



जब सफ़र से लौट कर आने की तय्यारी हुई
बे-तअल्लुक़ थी जो शय वो भी बहुत प्यारी हुई
चार साँसें थीं मगर सीने को बोझिल कर गईं
दो क़दम की ये मसाफ़त किस क़दर भारी हुई
एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
एक साअत है कि सारी उम्र पर तारी हुई
इस तरह चालें बदलता हूँ बिसात-ए-दहर पर
जीत लूँगा जिस तरह ये ज़िन्दगी हारी हुई
किन तिलिस्मी रास्तों में उम्र काटी 'आफ़ताब'
जिस क़दर आसाँ लगा उतनी ही दुश्वारी हुई
~ आफ़ताब हुसैन

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